डॉलर ही क्यों

इसके अलावा कमजोर मुद्रा का एक और मतलब है और वह ये कि उसकी डिमांड घट रही है। लेकिन किसी मुद्रा की डिमांड क्यों घटेगी? इसलिए कि जिस अर्थव्यवस्था की वह प्रतिनिधि मुद्रा है, उसमें विश्व का भरोसा घट रहा है। इसे इस तरह समझिए कि यदि आपको लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य कमजोर है, तो आप चाहे शेयर हो या प्रॉपर्टी, बिजनेस हो या पढ़ाई, सब कुछ विदेश में करना चाहेंगे और इसके लिए रुपया देकर डॉलर लेना चाहेंगे। ऐसे में बाजार में रुपये की बाढ़ आ जाएगी और भारतीय बाजार में डॉलर कम हो जाएंगे। फिर रुपया कमजोर होना लाजिमी है।
रुपए की कमजोरी में छिपा है इसकी तंदुरुस्ती का राज
भुवन भास्कर
भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 80.11 का अपना सबसे निचला स्तर छूने के बाद फिलहाल लगभग 50 पैसे मजबूत होकर एक दायरे में स्थिर होता दिख रहा है। लेकिन यह मान लेना कि रुपये के लिए सबसे बुरा दौर खत्म हो गया है, थोड़ी जल्दबाजी होगी। वैसे तो एक देश की मुद्रा का दूसरे देश की मुद्रा के मुकाबले मजबूत या कमजोर होना विशुद्ध तौर पर आर्थिक घटना है, लेकिन राजनीतिक शोशेबाजी और जुमलों के दौर में अक्सर रुपये की कमजोरी को राष्ट्रीय स्वाभिमान पर प्रहार के रूप में भी उछाल दिया जाता है और इसलिए कई बार रुपये का कमजोर होना सत्तारूढ़ दल के लिए आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक चिंता का सबब बन जाता है।
रुपया यदि डॉलर के मुकाबले मजबूत हो रहा है, तो उसके क्या मायने हैं या फिर कमजोर हो रहा है, उसका क्या मतलब है? चीन दशकों से अपनी मुद्रा युआन को कृत्रिम रूप से कमजोर रख कर अमेरिका के खिलाफ भुगतान संतुलन को अपने पक्ष में रखने में कामयाब रहा है। इसको समझने की आवश्यकता डॉलर ही क्यों है। जब किसी देश की मुद्रा कमजोर होती है तो इसका मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उसके उत्पाद ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी भाव पर उपलब्ध होते हैं।
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इसके उलट यदि कोई मुद्रा डॉलर के मुकाबले मजबूत हो रही है, तो उसका आयात सस्ता होगा और निर्यात महंगा होगा। जाहिर है कि भुगतान संतुलन के मामले में इसके कारण मजबूत मुद्रा वाला देश हमेशा नुकसान में रहेगा।
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि किसी वस्तु का मूल्य भारत में 80 रुपये है तो अमेरिकी बाजार में वह 1 डॉलर का होगा, लेकिन यदि डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत होकर 40 रुपये का हो जाए, तो वही वस्तु अमेरिकी बाजार में 2 डॉलर की हो जाएगी। यह आंकड़ा सिर्फ प्रतीकात्मक और समझाने के लिए है क्योंकि देसी मूल्य में एक्सपोर्ट होने पर ट्रांसपोर्ट, टैक्स इत्यादि कई लागत जुड़ती जाएंगी। लेकिन अनुपात तो इसी तरह रहेगा।
कोरोना महामारी से हुई इसकी शुरुआत
इसकी शुरुआत साल 2020 में हुआ जब कोरोना वायरस ने दस्तक दिया. महामारी के दौरान हर तरह की आर्थिक गतिविधि रोक दी गई जिसके कारण जीडीपी में गिरावट आई. इसके अलावा बड़े पैमाने पर रोजगार गए और कंपनियों को भारी नुकसान हुआ. आर्थिक गतिविधियों में सुधार के मकसद से दुनियाभर के सेंट्रल बैंकों ने इंट्रेस्ट रेट में कटौती की और लिक्विडिटी बढ़ाने पर फोकस किया. डेवलप्ड इकोनॉमी में इंट्रेस्ट रेट घटकर करीब जीरो पर आ गया है, जबकि रिजर्व बैंक ने रेपो रेट घटाकर 4 फीसदी तक कर दिया था.
कर्ज मिलना आसान हो गया और हर किसी के हाथ में पैसे आ गए. कोरोना महामारी के दौरान शेयर बाजार में जो भारी गिरावट आई थी वह अब लोगों का फेवरेट डेस्टिनेशन बन गया. लिक्विडिटी बढ़ने के बाद सारा डॉलर ही क्यों पैसा शेयर बाजार और कमोडिटी की तरफ जाने लगा और दोनों रिकॉर्ड हाई पर पहुंच गया. जब इंट्रेस्ट रेट घटता है तो बॉन्ड यील्ड भी घटने लगता है.
डिमांड आधारित है यह महंगाई
यील्ड घट गया, स्टॉक मार्केट और कमोडिटी प्राइस आसमान पर पहुंच गया जिसके कारण महंगाई बढ़ गई. इसे डिमांड आधारित महंगाई कहते हैं. यह ऐसी महंगाई होती है जिसमें एक्सेस डिमांड का सबसे बड़ा रोल होता है. चीन दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरर है. उसने कोरोना पर कंट्रोल करने के लिए लॉकडाउन को लंबे समय तक गंभीरता से लागू किया. इसस सप्लाई की समस्या पैदा हो गई. इससे महंगाई को सपोर्ट मिला. फरवरी 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया जिसके कारण कच्चा तेल आसमान पर पहुंच गया. इससे महंगाई की आग को और हवा मिली. यूरोप में गैस की किल्लत पैदा हो गई जिससे भी महंगाई को सपोर्ट मिला.
कुल मिलाकर अभी की महंगाई डिमांड आधारित और यूक्रेन क्राइसिस के कारण सप्लाई आधारित भी है. महंगाई का हाल ये है कि अमेरिका और इंग्लैंड में इंफ्लेशन टार्गेट 2 फीसदी है जो 9-10 फीसदी पर पहुंच गया है. रिजर्व बैंक ने डॉलर ही क्यों मॉनिटरी पॉलिसी पर नियंत्रण बनाए रखा जिसके कारण 6 फीसदी की महंगाई का लक्ष्य 7 फीसदी के नजदीक है.
मांग में कमी के लिए इंट्रेस्ट रेट में बढ़ोतरी
महंगाई को काबू में लाने के लिए डॉलर ही क्यों फेडरल रिजर्व, बैंक ऑफ इंग्लैंड, यूरोपियन सेंट्रल बैंक समेत दुनिया के सभी सेंट्रल बैंक इंट्रेस्ट रेट में डॉलर ही क्यों भारी बढ़ोतरी कर रहे हैं जिससे मांग में कमी आए. इंट्रेस्ट रेट में बढ़ोतरी के कारण फिक्स्ड इनकम के प्रति आकर्षण बढ़ा और शेयर बाजार के प्रति आकर्षण घटा है. इसलिए दुनियाभर के शेयर बाजार में गिरावट है और बॉन्ड यील्ड उछल रहा है.
महंगाई बढ़ने से करेंसी की खरीद क्षमता घट जाती है. डॉलर के मुकाबले दुनिया की तमाम करेंसी में गिरावट आई है. जब कोई सेंट्रल बैंक इंट्रेस्ट रेट बढ़ाता है जो इसका मतलब होता है कि वहां की इकोनॉमी मजबूत स्थिति में है. इकोनॉमी को लेकर मजबूती के संकेत मिलने पर उस देश की करेंसी भी मजबूत हो जाती है. एक्सपर्ट का कहना है कि डॉलर का प्रदर्शन ज्यादा मजबूत दिख रहा है, क्योंकि कोरोना के बाद दुनिया की तमाम इकोनॉमी की हालत तो खराब है ही और उनकी करेंसी की वैल्यु भी घटी है. इसके कारण डॉलर को डबल मजबूती मिल रही है.
रुपए के मूल्य में गिरावट के मायने
व्यापक व्यापार घाटे के साथ हाल ही में विदेशी मुद्रा भंडार में कमी के कारण भारतीय रुपए के मूल्य में गिरावट दर्ज़ की गई और कुछ ही समय पहले यह अब तक के निचले स्तर पर पहुँच गया। रुपए के मूल्य में हो रही गिरावट आम आदमी से लेकर अर्थव्यवस्था तक सभी के लिये चिंता का विषय बनी हुई है। ऐसे में यह जानकारी होना आवश्यक है कि रुपए के मूल्य में हो रही गिरावट के मायने क्या हैं?
- विदेशी मुद्रा भंडार के घटने या बढ़ने का असर किसी भी देश की मुद्रा पर पड़ता है। चूँकि अमेरिकी डॉलर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा माना गया है जिसका अर्थ यह है कि निर्यात की जाने वाली सभी वस्तुओं की कीमत डॉलर में अदा की जाती है।
- अतः भारत की विदेशी मुद्रा में कमी का तात्पर्य यह है कि भारत द्वारा किये जाने वाले वस्तुओं के आयात मूल्य में वृद्धि तथा निर्यात मूल्य में कमी।
- उदहारण के लिये भारत को कच्चा तेल आदि खरीदने हेतु मूल्य डॉलर के रूप में चुकाना होता है, इस प्रकार भारत ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार से जितने डॉलर खर्च कर तेल डॉलर ही क्यों का आयात किया उतना उसका विदेशी मुद्रा भंडार कम हुआ इसके लिये भारत उतने ही डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात करे तो उसके विदेशी मुद्रा भंडार में हुई कमी को पूरा किया जा सकता है। लेकिन यदि भारत से किये जाने वाले निर्यात के मूल्य में कमी हो तथा आयात कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही हो तो ऐसी स्थिति में डॉलर खरीदने की ज़रूरत होती है तथा एक डॉलर खरीदने के लिये जितना अधिक रुपया खर्च होगा वह उतना ही कमज़ोर होगा।
मुद्रास्फीति का बुरा दौर खत्म
पिछले कुछ दिनों से जींसों और कच्चे तेल की कीमतों में सुधार हुआ है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के खाद्य सामग्री कीमत सूचकांक द्वारा मापी गई वैश्विक कीमतों में जून में लगातार तीसरी बार गिरावट आई. खासकर खाद्य तेल के उप-सूचकांक में मार्च और जून के बीच 15 फीसदी की गिरावट आई.
औद्योगिक धातुओं की कीमतें मार्च में शिखर छूने के बाद अब गिरी हैं. कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें भी मंडी की आशंकाओं की वजह से जुलाई के शुरू से नरम हुई हैं. आयातों की कीमतों में लगातार नरमी भारत के ‘सीएडी’ के लिए अच्छी खबर है. ‘सीएडी’ जिस हद तक काबू में रहेगा मुद्रा की कीमत में ज्यादा गिरावट नहीं होगी.
रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप
अल्पावधि के लिए रुपये की दिशा अमेरिकी फेडरल रिजर्व की अगली बैठक में दरों में वृद्धि के अनुपात से तय होगी. भारतीय रिजर्व बैंक रुपये की गिरावट को रोकने के लिए हस्तक्षेप करता रहा है. इस मकसद से उसने अपने भंडार में से करीब 50 अरब डॉलर बेच डाले हैं. लेकिन डॉलर जब मजबूत हो रहा है, उस हालात में रुपये का बचाव करना कठिन होगा. विदेशी कर्ज के बारे में रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 43 फीसदी विदेशी कर्ज की अवधि इस साल पूरी हो जाएगी. इसके कारण ज्यादा डॉलर की मांग होगी और यह जमा कोश के प्रबंधन के लिहाज से रिजर्व बैंक के लिए एक चुनौती होगी.
डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए पूंजीगत नियंत्रणों का रिजर्व बैंक का ताजा फैसला एक सकारात्मक कदम है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार रुपये में करने की इजाजत देने का ताजा फैसला अल्पकालिक तौर पर ज्यादा असर नहीं डालेगा. लेकिन मध्य या दीर्घ अवधि के लिए यह डॉलर की जगह रुपये की मांग की ओर ले जाएगा.
ऐसी रही इस सप्ताह रुपये की चाल
- गुरुवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 89 पैसे की कमजोरी के साथ 80.89 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
- बुधवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 22 पैसे की कमजोरी के साथ 79.98 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
- मंगलवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 2 पैसे की मजबूती के साथ 79.75 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
- सोमवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 3 पैसे की कमजोरी के साथ 79.77 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
भारतीय रुपये के कमजोर होने की कई वजह होती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण डॉलर की डिमांड बढ़ना (US dollar strong) होती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कैसी भी उथल पुथल से निवेशक प्रभावित होता है और घबराकर डॉलर खरीदने लगता है जिससे उसकी डिमांड बढ़ जाती है और शेष देशों की मुद्राओं में गिरावट शुरू हो जाती है जिसमें भारतीय रुपया भी प्रभावित होता है।